एक दंश है, एक नासूर है, लाल आतंक

There's a sting, there's a sore, the red terror

सुनील कुमार महला

‘लाल आतंक” एक दंश है, एक नासूर है। सच तो यह है कि ‘लाल आतंक’ आज हमारे देश के लिए एक बड़ी चुनौती है। हाल ही में नक्सलियों के हमले में छत्तीसगढ़ के बीजापुर में एक आईईडी ब्लास्ट में डीआरजी(डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड) के 8 जवान शहीद हो गए। इस हमले में ड्राइवर की भी मौत हो गई।यह बहुत ही दुखद घटना है और नक्सलियों की यह बहुत ही कायराना हरकत है। नए साल पर नक्सलियों ने बड़ा खूनी खेल खेला। मीडिया के हवाले से खबरें आईं है कि पुलिस की एक टीम छत्तीसगढ़ के नारायणपुर से एक सर्च ऑपरेशन के बाद वापस लौट रही थी और इस दौरान एक पुलिस वाहन को नक्सलियों ने उड़ा दिया। कहना ग़लत नहीं होगा कि साल-2025 की शुरुआत में यह नक्सलियों का एक बड़ा हमला है। हमारे देश के केंद्रीय गृहमंत्री ने पिछले साल ही यह दावा किया था कि मार्च 2026 तक देश से नक्सलवाद का सफाया हो जाएगा, लेकिन इसी बीच नक्सलियों का यह बड़ा हमला होना दर्शाता है कि नक्सलवाद मुक्त भारत आज भी एक बड़ी व गंभीर चुनौती है। पाठकों को बताता चलूं कि नक्सलवाद की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जलिंग जिले के नक्सलबाड़ी गांव से हुई थी। जानकारी मिलती है कि किसानों के शोषण के विरोध में शुरू हुए एक आंदोलन ने ही नक्सलवाद की नींव डाली थी। कहना ग़लत नहीं होगा कि ज़मींदारों द्वारा छोटे किसानों पर किये जा रहे के अत्याचार/उत्पीड़न पर अंकुश लगाने के लिये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के चारू मजूमदार, कानू सान्याल और कन्हाई चटर्जी जैसे कुछ नेता सामने आये थे और कुछ लोगों द्वारा गुरिल्ला युद्ध के ज़रिये राज्य को अस्थिर करने के लिये हिंसा का इस्तेमाल किया जाता है, इसे ही नक्सलवाद कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत में ज़्यादातर नक्सलवाद माओवादी विचारधाराओं पर आधारित रहा है। यहां यह भी एक तथ्य है कि भारत में जहाँ वामपंथी आंदोलन पूर्व सोवियत संघ से प्रभावित था, वहीँ आज का माओवाद पड़ौसी चीन से प्रभावित है। ये मौजूदा माओवाद हिंसा और ताकत के बल पर समानांतर सरकार बनाने का पक्षधर रहा है। इसके अलावा, अपने उद्देश्य के लिये ये किसी भी प्रकार की हिंसा को उचित मानते हैं। बहरहाल, यह विडंबना ही है कि आज नक्सलवाद ने देश के कई हिस्सों को अपनी जद में ले लिया है और नक्सली समय-समय पर हमले करके हमारे देश के सुरक्षा बलों, नेताओं , आमजन को नुकसान पहुंचा रहे हैं। वर्ष 1967 से शुरू हुए नक्सलवाद ने अब तक कई हमले किए हैं, जिनमें अनेक लोग मारे जा चुके हैं। वास्तव में, नक्सलवाद का सबसे वीभत्स/खतरनाक रूप तब सामने आया था जब 1 अक्तूबर 2003 को नक्सलियों ने आंध्र प्रदेश के तत्कालीन सीएम चंद्रबाबू नायडू के एक काफिले पर हमला किया था और इसके बाद आंध्र सरकार ने राज्य में नक्सलियों के खिलाफ एक बड़ा अभियान छेड़ा था। जानकारी मिलती है कि इसी साल आंध्र प्रदेश में 246 नक्सलियों की मौत हुई थी। सच तो यह है कि नक्सलियों ने एक के बाद एक हमले करते हुए अब तक हमारे सुरक्षा बलों, पुलिस, नक्सल का विरोध करने वालों, नेताओं तक को अपना निशाना बनाया है। नक्सलियों का उभार किस कदर है इसका अंदाजा हम मात्र इस बात से ही लगा सकते हैं कि नक्सलवाद के कारण अकेले ओडिशा में वर्ष 2005 से लेकर वर्ष 2008 के बीच 700 लोगों की मौत हुई थी। पाठकों को बताता चलूं कि 12 जुलाई 2009 को राजनांदगांव के मानपुर थाना में नक्सली हमले में एक पुलिस अधीक्षक समेत 29 पुलिसकर्मी बलिदान हुए थे। इसी तरह, छह अप्रैल 2010 को बस्तर के ताड़मेटला में सीआरपीएफ के जवान सर्चिंग के लिए निकले थे, जहां नक्सलियों की बिछाई गई बारूदी सुरंग में हुए एक विस्फोट में 76 जवान शहीद हो गए थे। इतना ही नहीं, 29 जून 2010 को नारायणपुर जिले के धोड़ाई में सीआरपीएफ के 27 जवान, 19 अगस्त 2011 को बीजापुर में 11 सुरक्षा जवान, 13 मई 2012 को एनएमडीसी के प्लांट में सीएसआइएफ के छह जवान, 25 मई 2013 बस्तर के झीरम घाटी में हुए नक्सली हमले में 32 लोग, 24 अप्रैल 2017 को सुकमा जिले के चिंतागुफा के पास नक्सलियों के एंबुश में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 25 जवान,11 मार्च 2017 को सुकमा के भेज्जी इलाके में नक्सलियों द्वारा किए गए आइईडी ब्लास्ट और फायरिंग में 12 सीआरपीएफ जवान,13 मार्च 2018 को सुकमा जिले के किस्टाराम क्षेत्र में आइइडी ब्लास्ट में सीआरपीएफ के 9 जवान,5 अप्रैल 2019 को कांकेर में बीएसएफ के 4 जवान,9 अप्रैल 2019 को दंतेवाड़ा में 2019 के लोकसभा चुनाव में मतदान से ठीक पहले नक्सलियों ने चुनाव प्रचार के लिए जा रहे एक नेता समेत चार सुरक्षा कर्मी,21 मार्च 2020 को मिनपा में 17 जवान,3 अप्रैल 2021 को बीजापुर जिले के टेकुलगुड़ेम में नक्सलियों के एक एंबुश में 23 जवान तथा 26 अप्रैल 2023 को अरनपुर में नक्सलियों की बिछाई गई आइइडी में हुए विस्फोट की चपेट में आने से 10 डीआरजी जवान शहीद हो गए थे। बहरहाल, यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद के कारण क्या हैं ? तो इस संबंध में नक्सलियों का यह कहना है कि वे उन आदिवासियों और गरीबों के लिये लड़ रहे हैं, जिनकी सरकार ने दशकों से अनदेखी की है। वे ज़मीन के अधिकार एवं संसाधनों के वितरण के संघर्ष में स्थानीय सरोकारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जानकारी मिलती है कि माओवादी प्रभावित अधिकतर वे इलाके हैं, जहां सड़कें, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बुनियादी सुविधाओं का अभाव है। इन इलाकों में अधिकांशतया आदिवासी बहुल लोग रहते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि विभिन्न सार्वजनिक और निजी कंपनियों ने इन इलाकों में प्राकृतिक संपदा का जमकर दोहन किया है। इतना ही नहीं, विभिन्न आर्थिक कारणों से भी नक्सलवाद उभरा है। यह भी एक तथ्य है कि अशिक्षा और विभिन्न विकास कार्यों की उपेक्षा ने स्थानीय लोगों एवं नक्सलियों के बीच गठबंधन को मज़बूत बनाया है। कहना ग़लत नहीं होगा कि सामाजिक विषमता ने भी संघर्ष को जन्म दिया है। सरकार द्वारा बनाई जाने वाली विभिन्न योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव भी नक्सलवाद के एक कारण के रूप में उभरकर सामने आया है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने नक्सलवाद को खत्म करने के लिए प्रयास नहीं किए हैं। सच तो यह है कि नक्सलवाद को खत्म करने के लिए समय-समय पर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों ने कई बड़े ऑपरेशन चलाए हैं और नक्सलियों को मुख्यधारा में लाने के लिए भी कई अभियान चलाए गए हैं और अनेक पहलें की गई हैं। इस संबंध में ऑपरेशन ‘समाधान’ भारत में नक्सली समस्या को हल करने के लिये गृह मंत्रालय द्वारा शुरू की गई एक पहल है।आज सर्वाधिक नक्सल प्रभावित 30 ज़िलों में जवाहर नवोदय विद्यालय और केंद्रीय विद्यालय संचालित किये जा रहे हैं और शिक्षा उपलब्ध करवाई जा रही है। इतना ही नहीं, हिंसा का रास्ता छोड़कर समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिये सरकार पुनर्वास की भी व्यवस्था करती है। कहना ग़लत नहीं होगा कि नक्सलवाद सामाजिक-आर्थिक कारणों से उपजा था। सरकार आज सामाजिक समानता के लिए ठोस और गंभीर प्रयास कर रही है। इतना ही नहीं, बेरोजगारी को भी लगातार दूर करने का प्रयास किया जा रहा है। सबको शिक्षा, सबको स्वास्थ्य की व्यवस्थाएं की गई हैं।आर्थिक असमानता, भ्रष्टाचार आदि को दूर करने की दिशा में सशक्त प्रयास किए गए हैं और वर्तमान में भी किए जा रहे हैं। बुनियादी ढांचा पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है और इंफ्रास्ट्रक्चर(बिजली , पानी और सड़क) को लगातार मजबूत किया जा रहा है। संचार सुविधाओं(आदिवासी बहुल इलाकों में) पर भी विशेष ध्यान दिया गया है।बहरहाल, पाठकों को बताता चलूं कि वर्ष 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने नक्सलवाद को देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। उस समय उन्होंने यह बात कही थी, कि विकास ही इस उग्रवाद(नक्सलवाद)को खत्म करने का सबसे पुख्ता तरीका है। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि सरकार ने नक्सलवाद से लड़ने के लिए, उसका मुकाबला करने के लिए नक्सल प्रभावित इलाकों में सेना के जवानों की संख्या भी बढ़ाई है। यहां तक कि नक्सलियों से लड़ने के लिए छत्तीसगढ़ में वर्ष 1990 में राज्य सरकार ने नागरिकों को ही ट्रेनिंग देनी शुरू की थी, जिसे ‘सलवा जुडूम’ कहा गया। जानकारी मिलती है कि सरकार ने नागरिकों को हथियार तक मुहैया कराए। हालांकि, यह बात अलग है कि इसके लगातार विरोध और माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद इसे खत्म कर दिया गया। अंत में, कहना ग़लत नहीं होगा कि नक्सलवाद की बड़ी वजह आर्थिक और सामाजिक विषमता रही है। यह विडंबना ही है कि आज विभिन्न सियासी दल नक्सलवाद को एक चुनावी तवे की तरह इस्तेमाल करते हैं और मौका मिलते ही इस पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने की कोशिशें करते हैं। ऐसे राजनीतिक दलों को यह चाहिए कि वे अपने स्वार्थ और लालच से बाहर निकल कर देश हित में काम करें।सच तो यह है कि नक्सलवाद की समस्या किसी व्यक्ति विशेष, सरकार विशेष की समस्या नहीं है, अपितु यह हमारे देश की एक सामूहिक समस्या है। इससे निजात पाने के लिए हम सभी को एकजुट होकर आगे आना होगा और सरकार, प्रशासन के साथ मिलकर जागरूकता से काम करना होगा। विकास ही नक्सलवाद को खत्म कर सकता है।

Related Articles

Back to top button