काम के घंटे बनाम काम की गुणवत्ता

Work hours vs. quality of work

सुनील कुमार महला

इन दिनों देश में काम के घंटों पर बहस छिड़ी है। दरअसल, लार्सन एंड टुब्रो (एलएंडटी) के अध्यक्ष एस.एन. सुब्रह्मण्यन द्वारा सप्ताह में 90 घंटे काम करने संबंधी बयान पर छिड़ी बहस उस समय तेज हो गई जब इसमें महिंद्रा समूह के चेयरमैन आनंद महिंद्रा ने एंट्री ले ली। आनंद महिंद्रा ने कहा है कि काम की मात्रा के बजाए उसकी गुणवत्ता पर जोर दिया जाना चाहिए। वास्तव में, आनंद महिंद्रा ने काम के घंटों पर जो बात कही है वह बिल्कुल ठीक ही है क्यों कि क्योंकि कोई व्यक्ति यदि 90 घंटे काम पर जाए, लेकिन वह कोई गुणवत्तापूर्ण काम न करे, तो उसका क्या मतलब ? बिना गुणवत्ता के काम का कोई औचित्य या मतलब नहीं रह जाता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि आनंद महिंद्रा की बात एक सीमा तक काम के घंटों बनाम उत्पादकता की बहस को संतुलित दिशा में लाने की एक कोशिश है। पाठकों को बताता चलूं कि हाल ही में आनंद महिंद्रा ने सप्ताह में 90 घंटे काम करने को लेकर गए पूछे गए सवाल का उत्तर देते हुए इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति और अन्य के प्रति अपना सम्मान दोहराते हुए कहा है कि ‘मैं गलत नहीं कहना चाहता, लेकिन मुझे कुछ कहना है। मुझे लगता है कि यह बहस गलत दिशा में जा रही है, क्योंकि यह बहस काम की मात्रा के बारे में है।’ बहरहाल ,कहना ग़लत नहीं होगा कि आज हर तरफ कड़ी प्रतिस्पर्धा का जमाना है। जब कभी भी प्रतिस्पर्धा की बात आती है अथवा यदि कार्य महत्वपूर्ण है तो व्यक्ति को यह चाहिए कि वह पूरे तन-मन से उसे पूरा करने में जुट जाए, लेकिन काम का मतलब अच्छा आउटपुट देने से होता है, यूं ही ठाले-निठल्ले बैठकर काम के सिर्फ घंटे पूरे करने का कोई औचित्य या मतलब नहीं है। यदि कार्य इंपोर्टेंट है तो व्यक्ति को यह चाहिए कि वह काम के लिए स्वयं को उसमें पूरी तरह से झोंके। आनंद महिंद्रा ने काम की गुणवत्ता पर ध्यान देने की बात कही है, न कि काम की मात्रा पर। महिंद्रा ने कहा है कि ‘यह 40 घंटे, 70 घंटे या 90 घंटे की बात नहीं है। आप क्या परिणाम दे रहे हैं? भले ही यह 10 घंटे का हो, आप 10 घंटे में दुनिया बदल सकते हैं।’ महिंद्रा का कहना ग़लत नहीं है कि कंपनी में ऐसे लोग होने चाहिए जो समग्र तरीके से सोचें और समझदारी से निर्णय लें। उन्होंने यह भी कहा है कि हमारा मस्तिष्क दुनिया भर से आने वाले सुझावों के लिए खुला होना चाहिए, तभी हम गुणवत्ता की ओर अग्रसर हो सकते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि मनुष्य के पास चिंतन-मनन के लिए पर्याप्त समय होना चाहिए तभी हम कोई भी निर्णय लेने में सही इनपुट लगा सकते हैं। पाठकों को बताता चलूं कि पिछले वर्ष यानी कि वर्ष 2023 में, इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने यह कहकर एक बहस छेड़ दी थी कि युवाओं को देश की उत्पादकता बढ़ाने के लिए सप्ताह में 70 घंटे करने के लिए तैयार रहना चाहिए। लेकिन इस पर एलएंडटी के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यम ने हर हफ्ते नब्बे घंटे काम करने की बात की। अब उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने यह कहते हुए इस बहस को यू-टर्न दिया है कि काम के घंटे नहीं, बल्कि गुणवत्ता मायने रखती है।आज संपूर्ण वैश्विक परिदृश्य लगातार शनै:शनै: बदल रहा है और भारत बदलते वैश्विक परिदृश्य में अपना स्थान बना है, ऐसे में कार्य के घंटों व प्रोडेक्टीविटी पर जो बहस छिड़ी है, वह ठीक ही है, क्यों कि बात काम की गुणवत्ता या क्वालिटी पर होनी चाहिए। काम में यदि गुणवत्ता होगी तो देश में प्रोडेक्टीविटी बढ़ेगी और प्रोडेक्टीविटी बढ़ेगी तो निश्चित ही देश भी उन्नति के पथ पर अग्रसर हो सकेगा। वास्तव में, कार्य की गुणवत्ता व्यक्तियों, टीमों, विभागों या पूरे संगठन द्वारा किए गए कार्य का मानक है। कहना ग़लत नहीं होगा कि कार्य की गुणवत्ता से तात्पर्य उन अपेक्षाओं से है जिनके लिए व्यवसाय खुद को आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से ग्राहकों के लिए उत्तरदायी रखता है। वास्तव में कार्य की गुणवत्ता इसलिए महत्वपूर्ण है, क्यों कि गुणवत्तापूर्ण कार्य ग्राहक अनुभव, उनकी संतुष्टि को बढ़ाता है। यह कर्मचारी विकास की जानकारी देता है, वहीं दूसरी ओर कार्य की गुणवत्ता से लक्ष्यों के निर्धारण में भी सहायता मिलती है।कार्य की गुणवत्ता हमें सुधारों की ओर भी ले जाती है। इतना ही नहीं,कार्य की गुणवत्ता पर जोर देने से कर्मचारियों का जहां एक ओर गौरव बढ़ता है, वहीं दूसरी ओर उनके मनोबल में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है। बहरहाल,आज भारत में बहुत से क्षेत्र ऐसे हैं जहां व्यक्ति को बिना अवकाश लिए काम करना पड़ता है। इनमें क्रमशः मीडिया का क्षेत्र, पुलिस और आईटी क्षेत्रों को शामिल किया जा सकता है। यह ठीक है किसी कर्मचारी के लिए काम के घंटे निश्चित होने चाहिए, लेकिन प्रोडेक्टीविटी बहुत जरूरी है। बिना प्रोडेक्टीविटी के काम का कोई महत्व नहीं रह जाता है। सच तो यह है कि आज जरूरत इस बात की है कि काम के घंटों पर इस बहस को सही दिशा में देखा जाए एवं इसका सही आकलन किया जाए। नारायण मूर्ति या एसएन सुब्रमण्यम ने जो बातें काम के बारे में कहीं हैं, उसके पीछे संकेत यह है कि हमें अपनी प्राथमिकताओं को आवश्यक रूप से केंद्र में लाने के संदर्भ में काम करना चाहिए। आज चहुंओर घोर प्रतिस्पर्धा का युग है। ऐसे में कार्य की महत्ता को देखते हुए कर्मचारियों को यह चाहिए कि वे काम के घंटे देखे बगैर अपनी प्रतिभा व श्रम का भरपूर इस्तेमाल करें। कहना ग़लत नहीं होगा कि काम ही सच्ची पूजा और धर्म है। जब हम पूरी मेहनत और लगन, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठ होकर काम करते हैं तो हमें कार्य करने से भरपूर खुशी मिलती है और संतोष की भी प्राप्ति होती है। वास्तव में किसी भी काम को घंटों में बांटना तो एक सरल व सामान्य सा कंसेप्ट है। हाल फिलहाल, नारायण मूर्ति या सुब्रमण्यम काम में अधिक समय देने की बात कर रहे हैं, तो उसका मतलब काम में अपना सर्वश्रेष्ठ देने से है। काम के संदर्भ में आनंद महिंद्रा का यह कहना कहीं ज्यादा तर्कसंगत और उचित प्रतीत होता है कि उस काम का कोई औचित्य या मतलब नहीं, जिसमें गुणवत्ता या क्वालिटी न हो। कहना ग़लत नहीं होगा कि काम में प्रोडेक्टीविटी या उत्पादकता ही जहां एक ओर वास्तव में ग्राहकों की संतुष्टि, उनकी वफादारी और व्यवसाय की समृद्धि को सुनिश्चित करती है, वहीं दूसरी ओर यह देश व समाज को उन्नति और प्रगति के पथ पर भी ले जाती है।

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