
प्रो. सुधीर सिंह
पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है। कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका लोकतंत्र में तो काफी महत्वपूर्ण है ही, और लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलने के लिए इन तीनों में एक अच्छी स्थिति का होना बहुत ही जरूरी है। किन लोकतंत्र जनता के शासन के तौर पर भी जाना जाता है, जहां जनता मालिक होती है। इसलिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका के तमाम चेक एंड बैलेंस के बावजूद लोकतंत्र में जनता की आवाज बहुत हद तक अनसुनी भी रह जाती है। उन अनसुनी बातों को शासन चलाने वालों के समक्ष रखने का काम पत्रकारिता करती है, जिसको मीडिया के तौर पर भी जानते हैं।
वैश्वीकरण के युग में मीडिया काफी महत्वपूर्ण होकर उभरी है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया दोनों काफी सशक्त हो रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की संख्या बढ़ती जा रही है और दुनिया एक ग्लोबल विलेज के तौर पर तब्दील हो गई है, यहां चंद ही मिनट में आप पूरी दुनिया की स्थिति को अपने हिसाब से देख सकते हैं। कहीं भी कुछ भी होता है, कुछ ही मिनट में वह पूरी दुनिया के सामने होता है। उदाहरण के तौर पर, राष्ट्रपति चुनाव अमेरिका में चल रहा था। 47वें राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चुने गए हैं नवंबर 2024 में, लेकिन जब राष्ट्रपति चुनाव का प्रचार हो रहा था तो उस दौरान पेंसिल्वेनिया में राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप पर हमला हुआ। उस जानलेवा हमले में डोनाल्ड ट्रंप बाल-बाल बच गए। इस घटना का विजुअल जो है, सोशल मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया के अरबों लोगों ने घंटे के अंदर देख लिया। 100 साल पहले तो छोड़ो, 25 साल पहले भी इस तरह की स्थिति बिल्कुल इमेजिनेबल नहीं था, कल्पना से परे था। तो आज मीडिया है, पत्रकारिता है, वह ओमनी प्रेजेंट है। पूरी दुनिया में पत्रकारिता फैली हुई है। लोकतंत्र में पत्रकारिता की काफी अलग किस्म की पहचान है। पत्रकारिता लोकतंत्र की प्रहरी के तौर पर है, जनता की आवाज है।
हमारे देश में जब आजादी की लड़ाई चल रही थी तो हमारे जितने बड़े स्वतंत्रता सेनानी के नेता थे जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ देश में चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया था, उनमें से अधिकतर पत्रकार थे। गांधी जी भी एक अखबार के संपादक थे, नेहरू भी कुछ अखबारों में थे, इसी तरह से तमाम लोग लिखते थे, सुभाष बाबू, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, सरदार वल्लभभाई पटेल, आचार्य कृपलानी, जी. बी. पंत, ये तमाम लोग कहीं न कहीं पत्रकारिता से जुड़े हुए थे। अब 78 साल देश की आजादी के हो गए हैं। देश ने बहुत प्रगति की है। भारत जब आजाद हुआ था तो जनसंख्या 30 करोड़ की थी। आधी जनसंख्या इसमें गरीबी की रेखा से नीचे थी। आज 140 करोड़ की जनसंख्या है और मात्र 20 करोड़ आदमी गरीबी की रेखा से नीचे हैं। जो कि कुल आबादी 140 करोड़ की है, तो ये अपने आप में बहुत ही बड़ी उपलब्धि है। लेकिन आप यह देखें कि फिर भी 20 करोड़ लोग, जो कि फ्रांस और जर्मनी की संयुक्त जनसंख्या से ज्यादा हैं, वे अभी भी गरीबों के अभिशाप को झेलने को अभिशप्त हैं। यह एक अच्छी बात नहीं है।
गांधी ने कहा था कि लोकतंत्र तभी सफल माना जाएगा जब अंतिम पायदान तक पर बैठा हुआ आदमी जो है शासन की नीतियों से वह बेनिफिटेड हो। तो आज हम देखते हैं कि 78 साल जो आजादी के हुए, इसमें अभी भी बहुत बड़ा तबका ऐसा है जिसने शासन की अच्छी चीजों को महसूस नहीं किया। कोई आंकड़ा नहीं है, लेकिन व्यक्तिगत अनुभव से मुझे लगता है, मैंने एक पत्रकार के तौर पर, एक विद्यार्थी के तौर पर, एक प्रोफेसर के तौर पर लगभग पूरे भारत की यात्रा की है, दुनिया के एक दर्जन से अधिक देशों की भी यात्रा की है। तो मुझे लगता है कि भारत में अभी भी 20 करोड़ लोग ऐसे होंगे जिन्होंने रेल गाड़ियाँ नहीं देखी होंगी। आप कल्पना कर सकते हैं कि उनका मानस पटल कैसा होगा। वह किस तरह से जी रहे हैं, किस तरह से सोच रहे हैं।
इन तमाम चीजों के बीच जो मूल बात यह है कि प्रजातंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा, जनता पर शासन है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र लिखा, बहुत बड़ा ग्रंथ है, उसमें विस्तार से इन चीजों पर कहा गया है कि राजा की क्या ड्यूटी होनी चाहिए। कौटिल्य कहते हैं कि राजा का सुख तभी संभव है जब प्रजा सुखी हो। दूसरे शब्दों में कौटिल्य कहते हैं कि जिस तरह से एक नवजात शिशु की देखभाल उसके माता-पिता करते हैं, ठीक उसी प्रकार एक राजा का काम है कि वह अपनी प्रजा की देखभाल करें। तब तो लोकतंत्र नहीं था, राजतंत्र में कौटिल्य प्रधानमंत्री थे। आज लोकतंत्र है, राजतंत्र काल के गाल में समां गया। आज मीडिया का बहुत बड़ा रोल हो जाता है। सामाजिक सरोकारों में भी बहुत समस्याएँ हैं, समाज में बहुत तरह की विभेदकारी नीतियाँ हैं, ऊंच-नीच है, अभी भी जाति प्रथा है, दहेज है, महिलाओं के साथ समस्या है, बच्चों के साथ समस्या है, और तो और जलवायु परिवर्तन भी गंभीर समस्या है, जिसने मानवता के अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। पूरी दुनिया में मानव के अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है। तमाम चीजों के साथ-साथ और सारी चीजें हैं, लेकिन इसको मीडिया को जनता तक सही तरीके से पहुंचाना है।
सरकारें लोकतंत्र में जीतती हैं पांच साल के लिए, लेकिन पांच साल के बाद ही चुनाव होता है। भारत के संदर्भ में जो हमने संसदीय प्रणाली की सरकार अपनाई है, तो यहां ऐसी ही एक स्थापित परंपरा है। लेकिन उस पांच साल में शासक गूंगा नहीं हो जाए, बहरा नहीं हो जाए, और अंधा नहीं हो जाए, इसके लिए एक सशक्त पत्रकारिता की आवश्यकता है। जो शासकों को उनके कर्तव्यों के बारे में सचेत करें, उनके कर्तव्य के बारे में उन्हें सचेत करें, और यह बहुत बड़े पैमाने पर एक जरूरत है।
जो हमें समझना चाहिए कि किस तरह से शासन यह काम कर सकता, जिसको हमें जानना चाहिए, और पत्रकारिता का काम यही है कि इन चीजों को सुनिश्चित कैसे करें। निश्चित तौर पर सरकार कागज पर तो कहती है, पार्लियामेंट के पटल पर भी कहती है कि पत्रकारों और पत्रकारिता का सम्मान करती है, लेकिन वस्तु स्थिति यह है कि सत्ता अपने स्वभाव से ही निरंकुश होती है, कोई भी सरकार नहीं चाहती कि एक सीमा से ज्यादा पत्रकार स्वतंत्र हो और अपनी बात निर्भीकता से रख सके, जनता की समस्याओं को उठा सके। पत्रकार को बहुत तरह के अवरोधों का सामना करना पड़ता है। यह अवरोध सरकार सीधे नहीं क्रिएट करती है, अपितु अप्रत्यक्ष रूप से करती है, जिससे पत्रकार अपनी एक लक्ष्मण रेखा समझे और बहुत हद से ज्यादा जाकर चीजों को नहीं उठाएं। यह चीज लोकतंत्र में बढ़ रही है, और यह चीज लोकतंत्र के लिए अच्छी बात नहीं है। आलोचना सुनना, आलोचना करना, और आलोचना को आत्मसात करके मंथन करना और उसके बाद आगे बढ़ाना लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करता है।
महान भक्ति आंदोलन के प्रणेता कबीर के माध्यम से हम इस बात को बखूबी समझ सकते हैं जब कहते हैं कि “निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय” तो आप देखिए कि आलोचना हमको लेना चाहिए। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष सब जनता के लिए हैं, जनता की सेवा के लिए हैं। तो जनता की सेवा कितनी हो पा रही है और कहां डिफिसिट है, उसको हाईलाइट करने का काम पत्रकारिता का है, पत्रकारों का है, मीडिया का है। यह काम मीडिया अपने पूरे होश-हवास से कर रही है। निश्चित तौर पर मीडिया में भी काफी कमियां आई हैं, गिरावट आई है मूल्य में। आज मीडिया का जो मूल्य है, वह मूल्य नहीं है जो स्वतंत्रता काल के दौरान था। मीडिया अपनी निर्भीकता के लिए जाना जाता था, लोकतंत्र मूल्यों के कमिटमेंट के लिए जाना जाता था। उसे प्रतिबद्धता को कहीं न कहीं थोड़ा सा ग्रहण लग गया है। आज जरूर इस बात की है कि पत्रकार बंधु इस बात को समझें जो निर्भीकता, जो स्वतंत्रता आंदोलन की विरासत है और जन आंदोलन के मुद्दों को, जनता के सवालों को उठाने में पत्रकारिता को उन मुद्दों को लेकर चलना होगा। इससे समाज में जो पत्रकारिता की एक छवि है, वह और मजबूत होगी और निश्चित तौर पर सरकार पर भी इसका एक सकारात्मक असर पड़ेगा। सरकार किसी की भी हो, किसी भी राजनीतिक पार्टी की, इन पार्टियों को सोचना चाहिए कि लोकतंत्र की मजबूती ही उनका ध्येय है। सत्ता प्राप्ति करना उनका ध्येय नहीं होना चाहिए, वरन जनता की सेवा करना उनका ध्येय होना चाहिए। इस महान कार्य में पत्रकार बंधू सरकार के साथ काम करते हैं, कंधे से कंधा मिलाते हैं, कमियों को उजागर करते हैं। जहां सरकार की नजर नहीं जाती, वहां तक मीडिया की नजर जाती है। तो मुझे लगता है लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के तौर पर काम कर सकती है, बखूबी कर भी रही है। उसमें और गुणवत्ता लाने की जरूरत है, नैतिकता आधारित एक प्रतिबद्धता को भी मजबूत करने की जरूरत है। सरकार को यह चाहिए कि परोक्ष रूप से पत्रकारों पर नियंत्रण करने की उसकी जो मानसिकता है, उसे पर वह स्वयंफुर्त लगाम लगाएं क्योंकि पत्रकारिता और पत्रकार दोनों बड़े पैमाने पर राष्ट्र सेवा में लगे हैं। लोकतंत्र को मजबूत करने में लगे हैं। सरकारों का यह नैतिक दायित्व है कि इन प्रयासों में अपना महती योगदान दे। एक स्वस्थ समाज और स्वस्थ देश के लिए, जब भारत 2047 के विकसित भारत के अपने चरम लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है, विकसित भारत की संकल्पना के साथ बढ़ रहा है, तो निश्चित तौर पर पत्रकारिता का एक अहम रोल हो जाता है। पत्रकारिता के मजबूत और स्वस्थ होने से ही विकसित भारत का निर्माण हो पाएगा। ऐसा सरकार को समझना चाहिए और यथोचित व्यवहार करना चाहिए। मैं इस पत्रकार संगठन के सारे सदस्यों को आह्वान करता हूं कि वह प्रतिबद्धता आश्रित पत्रकारिता को बढ़ावा दें और उन मूल्यों के लिए खड़े हों। इन मूल्यों के लिए लोकतंत्र जाना जाता है।
धन्यवाद ।
डॉ. सुधीर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले 25 वर्षों से राजनीतिक विज्ञान पढ़ा रहे हैं,
डॉ. सिंह एक स्वतंत्र पत्रकार भी है।