ठीक नहीं कहा जा सकता राष्ट्रगान को लेकर विवाद

Controversy over the national anthem cannot be termed right

सुनील कुमार महला

नया साल शुरू हो चुका है और छब्बीस जनवरी आने को है।नये साल की शुरुआत में और गणतंत्र दिवस के नजदीक हाल ही में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन और राज्यपाल आर.एन. रवि के बीच राष्ट्रगान को लेकर जो भी विवाद हुआ है, उसे किसी ही हाल और परिस्थितियों में ठीक नहीं कहा जा सकता है, यह बहुत ही शर्मनाक है कि देश के राष्ट्रगान को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चला। पाठकों को जानकारी देना चाहूंगा कि भारतीय संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 51(क) जो मौलिक कर्तव्यों से संबंधित है, उसके अनुसार-‘भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह संविधान का पालन करे।उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।’ कहना ग़लत नहीं होगा कि राष्ट्रगान और राष्ट्रीय प्रतीकों का पालन करना हम सभी का नैतिक और संवैधानिक दायित्व है। देश के नागरिक होते हुए हमें हमारे देश के संविधान और संवैधानिक मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। विशेषकर जब बात नेताओं की आती है तो उन्हें तो संवैधानिक मर्यादाओं का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्यों कि जनता उनको विश्वास के साथ चुनकर आगे भेजती है।उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय सम्मान अपमान निवारण अधिनियम, 1971 के तहत राष्ट्रगान का जानबूझकर अपमान या अवमानना करने पर 3 साल तक की कैद, जुर्माना या दोनों का प्रावधान है। बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि मुख्यमंत्री और राज्यपाल के बीच राष्ट्रगान के मुद्दे पर यह टकराव केवल औपचारिक प्रक्रियाओं का मुद्दा मात्र ही नहीं है, अपितु यह संवैधानिक मर्यादाओं से भी जुड़ा हुआ है। पाठकों को बताता चलूं कि तमिलनाडु राजभवन ने विधानसभा के हालिया सत्र को संबोधित न करने के राज्यपाल आर.एन. रवि के फैसले को मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन द्वारा ‘बचकाना’ बताए जाने की आलोचना करते हुए हाल ही में यह कहा था कि ‘इस तरह का अहंकार ठीक नहीं है।’ गौरतलब है कि हाल ही में 7 जनवरी, 2025 को तमिलनाडु विधानसभा के उद्घाटन सत्र के दौरान, राज्यपाल आर.एन. रवि ने अचानक सभा छोड़ दी थी। वास्तव में, उन्हें सत्र के आरंभ में राष्ट्रगान न बजाए जाने पर आपत्ति थी, क्योंकि यह प्रोटोकॉल का उल्लंघन था। तथ्य यह भी है कि परंपरागत रूप से लगभग तीन दशकों से, तमिलनाडु विधानसभा राज्य के आधिकारिक गीत(राज्यगान) ‘थाई वल्थु’ से शुरू होती है और अंत में राष्ट्रगान बजता है। इसे बदलने की राज्यपाल की माँग को सत्तारूढ़ द्रविड़ मुनेत्र कषगम (द्रमुक) सरकार ने हस्तक्षेप के रूप में देखा। मुख्यमंत्री एम. के. स्टालिन ने राज्यपाल आर. एन. रवि के इस कदम को ‘बचकाना’ कहा, जिसके बाद राजभवन ने स्टालिन की टिप्पणी को ‘अहंकारी’ और ‘संविधान के प्रति असम्मानजनक’ करार दिया। राज्यपाल आर. एन. रवि ने मुख्यमंत्री स्टालिन पर बरसते हुए एक सोशल मीडिया पोस्ट के जरिए यह कहा है कि लोग देश और संविधान का अपमान बर्दाश्त नहीं करेंगे। उन्होंने यह भी कहा है कि ‘स्टालिन ऐसे नेता हैं जो भारत को एक राष्ट्र नहीं मानते और उसके संविधान का सम्मान नहीं करते हैं।’ तमिलनाडु के राज्यपाल ने यह बात कही है कि ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत सर्वोच्च माता है, और संविधान उसके बच्चों के लिए सर्वोच्च आस्था है।’इधर मुख्यमंत्री स्टालिन ने राज्यपाल पर यह आरोप लगाया है कि ‘वो यह “पचा” नहीं पा रहे हैं कि राज्य का विकास तेजी से हो रहा है।’ यह भी उल्लेखनीय है कि सीएम एमके स्टालिन ने एक्स पर पोस्ट कर कहा है कि ‘राज्यपाल ने विधानसभा की परंपरा का उल्लंघन करने की परंपरा बना ली है। संविधान के अनुसार राज्य के राज्यपाल साल की शुरुआत में सरकार का अभिभाषण पढ़ते हैं, जो कि एक विधायी परंपरा का हिस्सा रहा है। उन्होंने इसका उल्लंघन करना एक परंपरा बना ली है।’वास्तव में, दोनों नेताओं के बीच यह कोई पहला विवाद नहीं है। बता दें कि राज्यपाल एन. रवि और सीएम स्टालिन के बीच वर्ष 2021 के बाद से ही खराब रिश्ते रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो तमिलनाडु सरकार और राज्यपाल के बीच ऐसी खींचतान कई सालों से चलती आई है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अक्टूबर 2024 में, ‘द्रविड़’ शब्द को लेकर भी बवाल उठा था। तब द्रमुक ने आरोप लगाया था कि राज्यपाल द्रविड़ीय पहचान को कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच बार-बार होने वाले ऐसे विवाद भारत के संघीय ढाँचे में राज्यपाल की भूमिका पर महत्वपूर्ण सवाल उठाते हैं। यह ठीक है कि राज्यपाल का पद संवैधानिक रूप से बहुत ही महत्वपूर्ण होता है, लेकिन किसी भी राज्य के राज्यपाल को राजनीतिक रूप से तटस्थ और सहयोगी होना चाहिए। कहना ग़लत नहीं होगा कि इसकी अनुपस्थिति में राज्य के संवैधानिक तंत्र का सुचारु संचालन संभव नहीं हो सकता है। सच तो यह है कि राजनीतिक विवादों से जहां एक ओर देश की गरिमा को ठेस पहुंचती है वहीं दूसरी ओर इससे शासन भी कहीं न कहीं बाधित होता है। ऐसा होने से लोकतांत्रिक संस्थाओं में आमजन के विश्वास का भी खतरा कहीं न कहीं अवश्य ही पैदा होता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि मुख्यमंत्री को भी यह चाहिए कि वह राज्यपाल का पूरा मान-सम्मान करे और संवैधानिक मर्यादाओं से परे हटकर कुछ भी नहीं करे। दोनों नेताओं के बीच आपसी आरोप-प्रत्यारोप का यह दौर थमना चाहिए, क्यों कि ऐसे बयानों से देश की गरिमा के साथ ही साथ राजनेताओं की गरिमा पर भी व्यापक असर पड़ता है। कहना ग़लत नहीं होगा कि, राष्ट्रगान और राज्यगान के क्रम का भी अपना-अपना प्रतीकात्मक(सिंबोलिक) महत्व भी है।वहीं दूसरी ओर राज्य की स्वायत्तता और सांस्कृतिक गर्व का भी अपना महत्व है। राजनीति में मर्यादा, संयम बहुत ही जरुरी और आवश्यक है और दोनों ही पक्षों को यह चाहिए कि वे पूरे संयम और धैर्य से काम लें। राष्ट्र गान का इस्तेमाल किसी भी सूरत में राजनीति के लिए नहीं किया जाना चाहिए। सच तो यह है कि औपचारिक भूमिकाओं का किसी भी हाल और परिस्थितियों में राजनीतिकरण नहीं होना चाहिए। विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों का न केवल देश के आम आदमी और राजनेताओं द्वारा पालन किया जाना चाहिए बल्कि हर किसी को इन प्रावधानों का अक्षरशः पालन करना चाहिए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश का संविधान मूल सिद्धान्तों का एक समुच्चय है, जिससे कोई राज्य या अन्य संगठन अभिशासित होते हैं। कहना ग़लत नहीं होगा कि संविधान लिखित रूप में वह विधि है जो किसी राष्ट्र के शासन का आधार है; उसके चरित्र, संगठन, को निर्धारित करती है तथा उसके प्रयोग विधि को बताती है, तथा यह राष्ट्र की परम विधि है। अब जरूरत इस बात की है कि आपसी मतभेदों को संवाद, सौहार्द, आपसी मेलजोल की भावना से खत्म किया जाए। कहना ग़लत नहीं होगा कि राजनीतिज्ञों को यह चाहिए कि वे आपसी सम्मान के दरवाजे हमेशा खुले रखें। इतना ही नहीं,केंद्र सरकार की भी यह ज़िम्मेदारी बनती है कि वह यह सुनिश्चित करे कि राज्यपालों की नियुक्तियाँ राज्य की राजनीति में किसी भी सूरत में कभी भी आपसी टकराव, आरोप प्रत्यारोप आदि का स्त्रोत न बनें। तमिलनाडु में ही नहीं इधर महाराष्ट्र के संभाजीनगर में धर्मगुरु रामगिरि ने भी एक बार फिर विवादित बयान दिया है।उन्होंने कहा कि ‘जन, गण, मन…’ की बजाय वंदे मातरम हमारा राष्ट्रगान होना चाहिए।साथ ही, रामगिरि ने महान कवि रबींद्रनाथ टैगोर की आलोचना भी की है। रामगिरि महाराज ने यह बात कही है कि ‘राष्ट्रगान भारत के लोगों के लिए नहीं था, इसलिए भविष्य में हमें इसके लिए भी संघर्ष करना होगा और वंदे मातरम् हमारा राष्ट्रगान होना चाहिए।’ धर्म गुरू हो या राजनीतिक दल का कोई भी व्यक्ति या कोई भी अन्य, हर किसी को यह चाहिए कि वे राष्ट्र गान का पूरा मान-सम्मान करे। सच तो यह है राष्ट्रगान देश प्रेम से परिपूर्ण एक ऐसी संगीत रचना है, जो हमारे भारत देश के इतिहास, इसकी सभ्यता, इसकी संस्कृति और इसकी प्रजा के संघर्ष की व्याख्या करती है। यह हमारे देश भारत की ‘विविधता में एकता’ की भावना को व्यक्त करता है।बहरहाल, कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारे देश का राष्ट्रगान हमारे देश की अखंडता और राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है।इसे किसी राजनीतिक लाभ के लिए विवाद का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राष्ट्रगान और राज्यगान के बीच टकराव जैसी अप्रिय स्थिति पैदा न होने पाए, क्यों कि दोनों की ही अपनी अपनी-अपनी गरिमा और सम्मान है। एक दूसरे का सम्मान ही तो वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की मूल भावना और मूल तत्व है।

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