शांति की तलाश में लगी दुनिया के लिये युद्ध इतने अनिवार्य कैसे हो गये?

How did wars become so inevitable for a world looking for peace?

ललित गर्ग

नव वर्ष 2025 की शुरुआत दुनिया के लिए शांति, अमनचैन, अयुद्ध और समृद्धि का वर्ष बनने की कामना के साथ हुई लेकिन अमेरिका में नए साल के पहले ही दिन हुए आतंकी ट्रक अटैक में 15 लोगों की मौत हो गई और दर्जनों लोग घायल हो गए। न्यू ऑरलियन्स में हुए इस कायरतापूर्ण आतंकवादी हमले ने शांति एवं अमनचैन के दुनिया के मनसूंबों पर पानी फेर दिया। न्यू ऑरलियन्स में हुए इस आतंकी हमले को 42 वर्षीय अमेरिकी नागरिक शम्सुद्दीन जब्बार ने अंजाम दिया, जिसे इस्लामिक स्टेट-आईएसआईएस समर्थक माना जा रहा है क्योंकि उसकी गाड़ी से इस्लामिक स्टेट ( आईइस ) से जुड़े कुछ दस्तावेज मिले हैं। इस हमले की जांच ‘आतंकवादी कृत्य’ के रूप में कर रहे हैं। जब्बार पुलिस की गोलीबारी में मारा गया।

बात केवल अमेरिका में हुए इस आतंकी हमले की नहीं है। समूची दुनिया युद्ध और शांति, आतंक एवं आनन्द, हिंसा और अहिंसा, भय और अभय के बीच झूलस रही है। दुनिया में कई सत्ताएं युद्धरत हैं, जबकि ज्यादातर लोग शांति चाहते हैं। अजीब अंतर्विरोध एवं विरोधाभास देखने को मिल रहा है। शांति का मतलब सिर्फ़ युद्ध का अभाव नहीं होता, बल्कि एक ऐसा वातावरण होता है जहां गतिशील, मज़बूत, सौहार्दपूर्ण और संपन्न समाज का निर्माण होता है। ऐसे समाजों में मानव क्षमता का अधिकाधिक इस्तेमाल होता है और जीवन शांति एवं सहजीवन के रूप में व्यतीत होता है। विडम्बना देखिये कि ज्यादातर लोग शांति, अमन-चैन चाहते हैं फिर भी युद्ध प्रेमी सत्ताएं व्यापक जन-समर्थन हासिल करती जा रही है।

विश्व में उथल पुथल कई मोर्चों पर चली रहती है जिस पर दुनिया का ध्यान आकर्षित होता रहता है। साथ में ही इसका प्रभाव शेष विश्व पर भी पड़ता है, लेकिन विश्व में शांति के लिए संघर्ष जिस बड़े पैमाने पर हो रहे हैं युद्ध एवं आतंक भी उससे बड़े पैमाने पर पनप रहे हैं। इस समय कम से कम दो लंबे युद्ध चल रहे हैं। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को तीन साल होने वाले हैं, जबकि गाजा और इस्राइल के युद्ध को भी एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है। संसार लगभग चुपचाप, लाचार यह नरसंहार देख रहा है। युद्ध में केवल बर्बरता, लाशें, आग, मलबा और रॉकेट दिख रहे हैं। लोग बेबस हैं, बच्चे अचंभित हैं, औरतों के साथ बर्बरता हो रही है। फिर भी, इन युद्धों को रोकने की कोई सार्थक एवं प्रभावी पहल नहीं हो रही। क्या संसार ने युद्ध की अनिवार्यता और शांति की असंभावना को स्वीकार कर लिया है?

पूरा विश्व इस बीच दो गुटों में बंट चुका है। कुछ देश शांति का समर्थन कर रहे है तो कुछ मौन होकर युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकार रहे हैं। लेकिन युद्ध के मुख्य किरदार एक-दूसरे के अस्तित्व को ही मिटाने की जिद्द में गोला-बारूद दाग रहे हैं। मानो एक-दूसरे का नामोनिशान ही मिटा देंगे, लेकिन इस बीच खुद को बचाने के लिए कुछ लोग बंकरों में छिप रहे हैं तो कुछ मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध के मैदान में लड़ रहे हैं। युद्ध किसी का भी हो, जख्म बच्चों, महिलाओं एवं निर्दोषों को ही ज्यादा मिलते हैं। युद्ध दो देशों के बीच भले हो, लेकिन इससे समूचा विश्व आहत है, प्रभावित है। इतने व्यापक विनाश, क्रूरता, हिंसा की संसार अनदेखी कैसे कर रहा है, यह प्रश्न मानव के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़ा होकर भी इतना सून कैसे हैं?

वैसे युद्ध एवं आतंकवाद किसी भी देश के लिए लाभदायक सिद्ध नहीं होता है क्योंकि उसमें जीत-हार तो बाद की बात है, पहले इसमें मानवता को हानि और क्षति होती है। इसलिए युद्ध एवं आतंक न केवल मृत्यु और विनाश का कारण बनते हैं, बल्कि स्थायी शारीरिक और मानसिक विक्षिप्तता का कारण बनते हैं, विकास का अवरोध होता है, पर्यावरण-विनाश का कारण होता है। इक्कीसवीं सदी अपनी निष्ठुरता, अमानवीयता एवं क्रूरता में इतना बेमिसाल और अभूतपूर्व होगी, ऐसी उम्मीद शायद ही किसी ने की हो। शांति की तलाश में लगी दुनिया के लिये युद्ध इतने अनिवार्य कैसे हो गये, यह एक गंभीर प्रश्न है।

पृथ्वी पर जीवन अनमोल और अद्वितीय है। तार्किक रूप से, हम अपनी सभ्यता की प्रगति के ऐसे चरण में हैं कि हमें युद्धों के निहितार्थों को जानना चाहिए और उन्हें होने ही नहीं देना चाहिए। युद्धों में कोई वास्तविक विजेता नहीं होता है क्योंकि इसमें शामिल सभी पक्षों को परिणाम भुगतना पड़ता है जिसमें अक्सर दोनों पक्षों के हताहतों की संख्या अधिक होती है। यह समय मानवता के दुष्काल एवं आपातकाल का समय है, जिसमें युद्धरत होते देशों को मानवीय मूल्यों से हाथ धोना पड़ता है। उन देशों की तो क्षति होती ही है, इसका असर दूसरे देशों पर भी पड़ता है, चाहे वह आर्थिक तौर पर हो, राजनीतिक, सामाजिक या नैतिक तौर पर हो, युद्धों से होने वाली क्षति की कभी भी भरपाई नहीं हो पाती। सारे संसार में जिस तरह लोकतंत्र का हरण और पूंजीवाद का उत्कर्ष हो रहा है, उसमें शांति के लिए प्रयास धुंधले पड़ रहे हैं। युद्ध चाहे कोई भी हो, कौनसा भी हो, लेकिन वह कभी भी किसी भी देश की लोकतांत्रिक राजनीति, समाजव्यवस्था और अर्थव्यवस्था के लिए ठीक नहीं होता। एक युद्ध जिन देशों के बीच में छिड़ता है, केवल उनकी ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की शांति भंग करता है, इसका उदाहरण यूक्रेन-रूस तथा इजरायल-हमास युद्ध के परिणामों से विश्व मानवता पर पड़ रहे दुष्प्रभाव से आंकना होगा। यह जंग सिर्फ अब रॉकेट और मिसाइल के दम पर नहीं लड़ी जा रही है, बल्कि यह जंग साइबर वर्ल्ड में भी पहुंच चुकी है, जो अधिक घातक है।

यह कोई पहला मौका नहीं है, जब कोई जंग असल दुनिया से लेकर साइबर वर्ल्ड तक पहुंची हो। यूक्रेन और रूस के युद्ध में भी हमने साइबर अटैक के कई मामले देखे हैं। ऐसा ही कुछ हमास और इजरायल के बीच होता दिख रहा है। हाल में हमास ने इजरायल पर अचानक हमला किया। इस हमले में सैकड़ों लोगों की मौत हुई है। इनमें सैनिकों से लेकर आम आदमी तक सभी शामिल हैं। उनके ऊपर कई साइबर अटैक हुए हैं। फोन ऐप को टार्गेट किया गया। इसके अलावा कई दूसरे मामले भी देखने को मिले हैं। इजरायल का रेड अलर्ट फोन ऐप सिस्टम भी साइबर अटैक का शिकार हुआ है। इस ऐप की मदद से इजरायल में रॉकेट और मिसाइल हमले के वक्त रियल टाइम अलर्ट मिलता है। ये चीजें बताती हैं कि जंग का अंजाम कितना घातक होता है।

अब परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का खतरा भी बढ़ गया है कि यूक्रेन को इतने लंबे समय से झुकता न देख रूस का अहं चोट खा रहा है। हालांकि परमाणु हथियारों के दुष्परिणामों से दोनों देश अनजान नहीं हैं। इस तरह युद्धरत बने रहना खुद में एक असाधारण और अति-संवेदनशील मामला है, जो समूची दुनिया को विनाश एवं विध्वंस की ओर धकेलने जैसा है। ऐसे युद्ध का होना विजेता एवं विजित दोनों ही राष्ट्रों को सदियों तक पीछे धकेल देगा, इससे भौतिक हानि के अतिरिक्त मानवता के अपाहिज और विकलांग होने का भी बड़ा कारण बनेगा। इसलिये दुनिया अब युद्ध का अंधेरा नहीं, शांति का उजाला चाहती है। दुर्भाग्य को मिटाकर सौभाग्य का उजाला करना होगा, जिसमें मानवीय संबंध, संवाद, सहकार, टीवी चैनल, सिनेमा, त्योहार, साहित्य, कलाएं- सभी शांति की विधाएं बनने लगे। नववर्ष में इसकी सार्थक शुरुआत हो एवं नये शांति के सूरज का अभ्युदय हो।

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