दुर्भाग्यपूर्ण ‘तस्वीर की सियासत’

Unfortunate 'politics of picture'

निर्मल रानी

देश सरकारी कार्यालयों में प्रायः राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी,देश के राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के चित्र लगाये जाते हैं। जबकि राज्यों में इनके साथ मुख्यमंत्री व राजयपाल के चित्र भी लगाये जाते हैं। इस व्यवस्था को ‘प्रोटोकॉल ‘ अथवा शिष्टाचार / नवाचार कहा जाता है। शीर्ष पदों पर बैठे लोग समय समय पर अपनी सुविधानुसार या किसी पूर्वाग्रह के चलते स्वेच्छा से इसमें बदलाव भी करते रहते हैं। उदाहरण के तौर पर आपको झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के कार्यालय में मुख्यमंत्री की कुर्सी के ठीक पीछे मुख्य रूप से केवल उनके पिता शिबू सुरेन का ही चित्र लगा मिलेगा। ज़ाहिर है वे उन्हें ही अपना आदर्श नेता मानते हैं। इसी तरह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के कार्यालय में राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री के चित्र से आकार में भी बड़ा तथा बिल्कुल मध्य में गुरु गोरखनाथ का चित्र लगाया गया है। अनेक मुख्यमंत्रियों के कार्यालयों में उनकी अपनी पसंद के आधार पर चित्र लगाये गए हैं।

दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी जनवरी 2022 में गणतंत्र दिवस से एक दिन पूर्व दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय सहित राज्य के सभी सरकारी कार्यालयों में केवल बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के चित्र लगाने के निर्देश जारी किये थे। उन्होंने अधिकारियों को यह भी निर्देशित किया था कि दिल्ली सरकार के सभी कार्यालयों में किसी अन्य नेता की तस्वीरें प्रदर्शित नहीं की जायें । तब से लेकर पिछले दिनों दिल्ली की सत्ता बदलने तक दिल्ली के मुख्यमंत्री कार्यालय से लेकर राज्य के अधिकांश कार्यालयों में महात्मा गाँधी, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति की तस्वीर हटाकर बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के चित्र लगा दिए गये थे। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने अपनी कुर्सी के ठीक पीछे बाबासाहेब और भगत सिंह के चित्र लगाये थे जो उनके बाद आतिशी के मुख्यमंत्री काल में भी लगे रहे।

परन्तु जिस दिन दिल्ली में 27 साल का ‘वनवास’ ख़त्म कर भाजपा सत्ता में आई व भाजपा की नई मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने कार्यभार संभाला उस दिन उन्होंने सबसे पहले मुख्यमंत्री की कुर्सी के पीछे लगे अंबेडकर और भगत सिंह के चित्रों को हटाकर उनके स्थान पर राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी,प्रधानमंत्री तथा राष्ट्रपति के चित्र लगा दिए। जबकि पूर्व में लगे चित्रों को दूसरी दीवार पर स्थान दिया गया। इसी बात पर आम आदमी पार्टी ने हंगामा खड़ा करते हुये इसे राजनैतिक मुद्दा बना लिया। पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी ने तस्वीर हटाने पर कहा कि “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दिल्ली विधानसभा का नेतृत्व ऐसी पार्टी कर रही है, जो दलित और सिख विरोधी है। भाजपा ने अपना दलित विरोधी रुख़ दिखाते हुए मुख्यमंत्री कार्यालय से बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर और शहीद भगत सिंह के चित्र हटा दिए हैं।” परन्तु तस्वीरों पर सियासत करने वाली ‘आप’ भी ऐसे सवालों से बच नहीं सकती। आम आदमी पार्टी नेताओं को भी यह बताना पड़ेगा कि उन्होंने अपने कार्यालय से राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की फ़ोटो क्यों हटाई थी ? यदि मान लिया जाये की नरेंद्र मोदी उनके घोर विरोधी नेता हैं परन्तु वे देश के प्रधानमंत्री भी हैं। मान लीजिये कि राजनैतिक पूर्वाग्रह के कारण उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र नहीं लगाया परन्तु उन्होंने आख़िर राष्ट्रपति का चित्र क्यों नहीं लगाया गया ?

जहाँ तक सवाल है तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल द्वारा मात्र चित्र लगाकर बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह को सम्मान दिये जाने का, तो यदि अरविंद केजरीवाल के वक्तव्यों पर नज़र डालें तो केजरीवाल की बातें तो इन नेताओं के मूल विचारों के बिल्कुल विरुद्ध हैं। मिसाल के तौर पर अरविंद केजरीवाल ने 27 अक्टूबर 2022 को मुख्यमंत्री के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लिखे एक पत्र के माध्यम से यह मांग की थी कि भारतीय नोटों पर गांधी जी के साथ-साथ लक्ष्मी-गणेश की तस्वीर भी छपे। उनका कहना था कि इससे देश की अर्थव्यवस्था को भगवान का आशीर्वाद मिलेगा। विघ्नहर्ता का आशीर्वाद होगा तो अर्थव्यवस्था सुधर जाएगी। इसलिए मेरी केंद्र सरकार से अपील है कि भारतीय करेंसी के ऊपर लक्ष्मी गणेश की तस्वीर छापें।’ क्या केजरीवाल का यह सुझाव बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह जैसे महापुरुषों के विचार सम्मत है ? किसी का चित्र लगाने का अर्थ आख़िर क्या होता है ? केवल उस महापुरुष के समर्थकों या उनके समुदाय को ख़ुश करना या उनके आदर्शों को मानना व उनपर चलना ? बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह के जीवन की कौन सी शिक्षा है जिसने केजरीवाल को इस बात के लिये प्रेरित किया कि उन्होंने प्रधानमंत्री को उपरोक्त सलाह दे डाली। वह भी स्वयं एक शिक्षित व राजस्व सेवाओं के अधिकारी होने के बावजूद। हद तो यह है कि प्रधानमंत्री को यह पत्र लिखते समय केजरीवाल ने यह भी लिहा था कि “यह देश के 130 करोड़ लोगों की इच्छा है कि भारतीय करेंसी पर एक ओर महात्मा गांधी व दूसरी ओर लक्ष्मी-गणेश जी की तस्वीर भी लगाई जाए।’ केजरीवाल ने 130 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि होने के नाते नहीं बल्कि सही मायने में देश के बहुसंख्य समाज को वरग़लाने के लिये ही ‘तस्वीर की सियासत’ यह शगूफ़ा छोड़ा था।

इसी तरह विधान सभा चुनावों की घोषणा से पूर्व दिसंबर 2024 में दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने एक और ऐसी ही चुनावी फुलझड़ी छोड़ते हुये यह घोषणा कर डाली कि आम आदमी पार्टी के चुनाव जीतने पर मंदिरों के पुजारियों और गुरुद्वारों के ग्रंथियों को 18 हज़ार रुपए प्रति माह की सम्मान राशि दी जाएगी। केजरीवाल ने इसे ‘पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना’ का नाम दिया। इस घोषणा की आलोचना करते हुये भाजपा ने उसी समय यह जवाब दिया था कि ‘चुनावी हिंदू केजरीवाल’ ने मंदिर और गुरुद्वारों के बाहर शराब के ठेके खोले हैं और उनकी पूरी राजनीति हिंदू विरोधी रही है। यहाँ भी यही सवाल है कि क्या ‘पुजारी-ग्रंथी सम्मान योजना’ की घोषणा बाबासाहेब अंबेडकर और भगत सिंह जैसे महापुरुषों की सोच के अनुरूप थी जिनके चित्र उन्होंने अपने कुर्सी के पीछे लगा रखे थे ?

भाजपा भी इसी तरह गांधी व बाबासाहेब अंबेडकर व भगत सिंह जैसे आदर्श पुरुषों के केवल चित्र लगाकर या उनपर ख़ास अवसरों पर माल्यार्पण कर उनके प्रति अपने आदर व सम्मान का दिखावा तो ज़रूर करती है परन्तु हक़ीक़त में वह भी दिखावा मात्र ही है। अन्यथा घोर हिंदुत्ववादी राजनीति का गांधी व बाबासाहेब आंबेडकर व भगत सिंह जैसे महान देशभक्त मानवतावादी नेताओं से क्या लेना देना ? यह तो धर्म और राजनीति के ऐसे घालमेल को ही विध्वंसक मानते थे। कहना ग़लत नहीं होगा की इसी ‘तस्वीर की सियासत’ ने ही देश की ‘सियासत की तस्वीर’ को बदनुमा कर डाला है जिसकी भरपाई महात्मा गांधी व बाबासाहेब , व भगत सिंह जैसे आदर्श पुरुषों के केवल चित्र लगाकर या उन की प्रतिमाओं पर माल्यार्पण कर नहीं बल्कि केवल सच्चे मन से उनके बताये हुये रास्तों व उनके आदर्शों पर चलकर ही की जा सकती है ?

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