
अशोक भाटिया
भारत में बाल तस्करी के खिलाफ कार्रवाई कई स्तरों पर की जा रही है। केंद्र सरकार की प्रतिक्रिया नीतिगत स्तर पर उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली योजनाओं और कानूनी स्तर पर पारित अधिनियमों और संशोधनों के रूप में देखी जा सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (15 अप्रैल, 2025) को एक फैसले में माता-पिता को अपने बच्चों के प्रति “बेहद सतर्क” रहने की चेतावनी दी, क्योंकि वे यौन शोषण, जबरन श्रम, भीख मांगने और छोटे-मोटे अपराधों, सशस्त्र संघर्ष, बाल विवाह और यहां तक कि शिशुओं को अंतर-देशीय गोद लेने के नाम पर बेचने के लिए बच्चों की तस्करी करने वाले गिरोहों से सावधान रहते हैं।न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की खंडपीठ ने बाल पीड़ितों और उनके प्रियजनों की असहायता का हृदय विदारक चित्रण किया, जिनमें से अधिकांश समाज के गरीब तबके से हैं और जो अच्छी तरह से नेटवर्क वाले बाल अपहरण रैकेट से निपटने के लिए सुसज्जित नहीं हैं, जो सूचना, फोटोग्राफ, पीड़ितों के स्थान को साझा करने और धन हस्तांतरित करने के लिए प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं।न्यायमूर्ति पारदीवाला ने कहा, “हम सभी को, खास तौर पर देश भर के अभिभावकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के प्रति बेहद सतर्क और सावधान रहना चाहिए। उनकी ओर से थोड़ी सी लापरवाही या लापरवाही बहुत महंगी पड़ सकती है। जब कोई बच्चा मर जाता है तो माता-पिता को जो दर्द और पीड़ा होती है, वह उस दर्द और पीड़ा से अलग होती है, जो माता-पिता को तब होती है, जब वे अपने बच्चों को तस्करी में लगे ऐसे गिरोहों के हाथों खो देते हैं।”
गौरतलब है कि भारत में बाल तस्करी बढ़ने का एक कारण गरीबी है। भुखमरी, अशिक्षा और बेरोजगारी की वजह से गरीब परिवारों के बच्चे सर्वाधिक असुरक्षित हैं। आजीविका का साधन न होने के कारण लोग अपने बच्चों को किसी न किसी काम में लगा देते हैं। बाल तस्करों की नजर अस्पतालों में जन्म लेने वाले नवजात शिशुओं पर ही नहीं, ऐसे बच्चों पर भी होती है जो ढाबों-होटलों और ईंट-भट्ठों पर काम कर रहे होते हैं। इन्हें अगवा कर बेच दिया जाता है।कई बच्चे भीख मंगवाने वाले गिरोह के चंगुल में फंस जाते हैं। बच्चियां यौन शोषण का शिकार होती हैं। आदिवासी इलाकों से बच्चे रहस्यमय ढंग से लापता हो जाते हैं। थानों में उनकी सुनवाई नहीं होती। एक अस्पताल से नवजात शिशु के गायब होने और उसे बेचे जाने के मामले में शीर्ष न्यायालय ने उचित ही कड़ा रुख दिखाया है। इसमें दोराय नहीं कि बाल तस्कर समाज के दुश्मन हैं। इसे लेकर सुप्रीम कोर्ट की चिंता वाजिब है। अगर अस्पतालों से शिशु गायब होते हैं, तो उन पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। उनके लाइसेंस रद्द होने चाहिए।
यह छिपी बात नहीं कि भारत में बच्चों को किस तरह अगवा कर उनका बचपन छीना जा रहा है। उन्हें बालश्रम और यौन कर्म में तो झोंका ही जाता है, अंग तस्करी का शिकार बना कर उनकी जान को जोखिम में डाल दिया जाता है। यह मानवीय गरिमा के खिलाफ है। ताजुब्ब है कि इस तरह की गतिविधियां पुलिस तंत्र की नाक तले वर्षों से चल रही हैं। एक तरफ तो बच्चों के गायब होने की रपट आसानी से लिखी नहीं जाती, दूसरी तरफ बहुत कम बच्चे तस्करों के चंगुल से छूट कर घर लौटते हैं।उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, ओड़ीशा, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में बाल तस्करी के मामले अधिक दर्ज होते हैं। यहां ऐसे मामलों में लगातार वृद्धि हुई है। हालांकि अभिभावकों के जागरूक होने से मामले दर्ज होने लगे हैं। वहीं देश भर की अदालतों में बाल तस्करी के कई मामले लंबित हैं।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब हो जाता है। कुछ मामलों में, बच्चों को उनके घरों से उठाकर बाजार में खरीदा और बेचा जाता है। अन्य मामलों में, बच्चों को नौकरी का अवसर दिखाकर तस्करों के हाथों में फंसा दिया जाता है, लेकिन वास्तविकता में, वहां पहुंचने पर वे गुलामी का शिकार हो जाते हैं। भारत में, बच्चे विभिन्न कारणों से तस्करी का शिकार होते हैं, जैसे श्रम, भीख मांगना, और यौन शोषण। इस अपराध की प्रकृति के कारण इसे ट्रैक करना कठिन है; और कानूनों के कमजोर प्रवर्तन के कारण इसे रोकना भी मुश्किल है। इसी वजह से, इस समस्या से संबंधित आंकड़े केवल अस्पष्ट अनुमान हैं। भारत बाल तस्करी के लिए एक प्रमुख स्थान है, क्योंकि तस्करी के शिकार बच्चे भारत से होते हैं, भारत से होकर गुजरते हैं, या भारत आने के लिए मजबूर होते हैं। हालांकि तस्करी का अधिकांश हिस्सा देश के भीतर ही होता है, लेकिन नेपाल और बांग्लादेश से भी बड़ी संख्या में बच्चों की तस्करी की जाती है। जो तस्कर बच्चों का शोषण करते हैं, वे भारत के किसी अन्य क्षेत्र से हो सकते हैं, या बच्चे को व्यक्तिगत रूप से भी जान सकते हैं। जो बच्चे तस्करी के बाद घर लौटते हैं, उन्हें अक्सर उनके समुदायों में शर्म का सामना करना पड़ता है, बजाय इसके कि उन्हें सहानुभूति या समर्थन मिले।]
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर 3.5% है, जो अपेक्षाकृत कम है। इसके बावजूद, वित्तीय अवसर सीमित होने के कारण, कई बच्चों को काम की पेशकश के बहाने शोषण का सामना करना पड़ता है।गरीबी में जी रहे बच्चों को अक्सर रहने की जगह या भोजन के बदले सेक्स व्यापार में धकेल दिया जाता है। गरीबी से बाहर निकलने या कर्ज चुकाने की मजबूरी में कुछ माता-पिता अपने बच्चों को तस्करों के हाथों बेचने पर मजबूर हो जाते हैं। इसके अलावा, बच्चों को गिरोहों द्वारा तस्करी कर लाया जाता है और सड़कों पर भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है।
कानूनी रूप से, भारत में बच्चों को हल्का काम करने की अनुमति है, लेकिन अक्सर उन्हें बंधुआ मजदूरी और घरेलू कामकाज के लिए तस्करी किया जाता है, और उनसे देश में निर्धारित मानकों से कहीं अधिक काम करवाया जाता है। बच्चों को अक्सर परिवार के कर्ज को चुकाने के लिए ईंट और पत्थर की खदानों में बंधुआ मजदूरों के रूप में काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। उन्हें ऐसे उपकरणों का उपयोग करने के लिए बाध्य किया जाता है जो उन्हें भागने में असमर्थ बनाते हैं, और फिर नियंत्रण के अधीन होने के लिए मजबूर करते हैं। कई बार उन्हें शारीरिक, भावनात्मक या यौन शोषण के माध्यम से भी बंधुआ बना दिया जाता है।
यक्ष प्रश्न आज यही खड़ा हुआ है कि इस तरह के कानून बना देने से क्या बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा, स्वतंत्रता जैसी बुनियादी बातों को जमीनी हकीकत में बदल पाए है हुक्मरान! जाहिर है देश की स्थिति देखकर आपका उत्तर नकारात्मक ही होगा। देश में सरकारी शालाओं में नामांकन का प्रतिशत 94 है, जो राहत की बात मानी जा सकती है। क्या कभी किसी मंत्री, विधायक, सांसद ने अपने निर्वाचन क्षेत्र के ग्रामीण अचंलों की शालाओं में जाकर विद्यार्थियों की वास्तविक स्थिति को जानना चाहा है! सरकार की शिक्षा की पिछले साल की रिपोर्ट में साफ किया गया है कि आठवीं स्तर तक के विद्यार्थियों में महज 73 फीसदी विद्यार्थी ही हिन्दी या अंग्रेजी में उचित उच्चारण कर पाते हैं या शुद्धलेख लिख पाते है। कागजी आंकड़े चाहे जो भी बयां करें पर जमीनी हकीकत बहुत ही भयावह दिखाई दे रही है।
अनेक राज्यों में दस्तक अभियान चल रहा है। इस अभियान में कुपोषित बच्चों की तादाद का प्रतिशत ही अगर देख लिया जाए तो देश के नीति निर्धारिकों के होश उड़ सकते हैं। परिवार कल्याण एवं स्वास्थ्य विभाग के परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण में 21 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। इसके अलावा 59 प्रतिशत बच्चे एनीमिक (खून की कमी से ग्रस्त) हैं। 18 फीसदी बच्चे कम वजन (अंडर वेट) के पैदा होते हैं। खून की कमी के कारण बच्चों के शारीरिक और मानसिक विकास पर क्या प्रभाव पड़ सकते हैं, इस बारे में चिकित्सक ही बेहतर बता सकते हैं, पर इससे बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास बाधित होता ही होगा। इसके अलावा कम वजन के बच्चों के पैदा होने पर उन्हें शुरूआती दौर में ही अनेक तरह की परेशानियों से भी दो चार होना ही पड़ता होगा। संपन्न परिवारों में तो इस तरह के बच्चों की देखरेख और चिकित्सकीय सहायता के जरिए उन्हे दुरूस्त कर लिया जाता होगा, पर गरीब गुरबों के बच्चे जो सरकारी अस्पतालों पर ही निर्भर रहते हैं उन पर क्या बीतती होगी!
समय का चक्र अपनी गति से आगे बढ़ता है। इस तरह से जिन बच्चों का बचपन ही गुम हो रहा है वे बच्चे कल देश का भविष्य बनते हैं।
बच्चों को उचित माहौल दिलवाने की जवाबदेही सरकारी विभागो की है। जब शालाओं में ही खेल के मैदानों, पुस्तकालय आदि का अभाव होगा, बच्चों को मोटी मोटी उबाऊ महंगी किताबों से अध्ययन कराया जाकर ढेर सारा होमवर्क दिया जाएगा! उनसे प्रोजेक्ट बनवाए जाएंगे। शालाओं से थका मांदा जब बच्चा घर लौटता है तो उसे फिर से कोचिंग या ट्यूशन के लिए रवाना कर दिया जाता है। घर पर रहने के दौरान बच्चा या तो टीवी देखने या मोबाईल पर खेलने, इंटरनेट पर समय बिताने का काम करेगा तो बच्चे का नैसर्गिक विकास होने से रहा।
अस्सी के दशक के उपरांत टीवी ने जिस तरह समाज में अपनी घुसपैठ बनाकर सामाजिक वर्जनाओं को तार तार किया है, वह किसी से छिपा नहीं है। अब आवश्यकता इस बात की है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय के द्वारा ज्ञान वर्धक, संदेश देने वाली चीजों के साथ ही साथ रोजगार परक तथा व्यवहारिक रूप से उपयोगी चीजों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए। इसके साथ ही गरीब गुरबों के लिए चलाई जा रही योजनाओं की ईमानदारी से मानीटरिंग की जाए। इतना ही नहीं बच्चों के गुम होते बचपन और बाल सुलभ हरकतों के क्षरण को कैसे बचाया जाए इस पर भी विचार होना चाहिए, अन्यथा बच्चे में थोड़ी सी समझ आते ही वह जवानी की दहलीज पर कदम रख देगा और इस तरह उसका नैसर्गिक विकास अवरूद्ध ही रह जाएगा!
अशोक भाटिया, वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार ,लेखक, समीक्षक एवं टिप्पणीकार